खान अशु जमाना कही बहुत पीछे छूट चुका, जब गुरु ब्रम्हा हुआ करते थे, उन्हें विष्णु के समतुल्य रखा जाता था... असमन्जस की स्थिति मानी जाती ...
खान अशु
जमाना कही बहुत पीछे छूट चुका, जब गुरु ब्रम्हा हुआ करते थे, उन्हें विष्णु के समतुल्य रखा जाता था... असमन्जस की स्थिति मानी जाती थी कि गुरु और गोविन्द दोनों सामने खड़े हैं, किसके पैर पहले स्पर्श किए जाएं, निष्कर्ष में गुरु की महिमा इसलिए मानी जाती थी कि गुरु न होते तो गोविन्द का महत्व कैसे और कौन समझाता?
जमाना वह भी नहीं रहा, जब गुरु दक्षिणा के रूप में अपने हुनर का मुख्य औजार (अन्गुठा) देने में भी हिचकिचाहट महसूस नहीं होती थी। यहाँ तक कि वह जमाना भी पीछे छूट गया, जब कोई पिता अपने बच्चे को किसी गुरु के हवाले करते यह अधिकार दे दिया करता था कि शिक्षा के लिए जरूरत पड़े तो बच्चे की पूरी खाल वह रख लें और उन्हें सिर्फ हड्डी ही वापस कर दे!
कान्वेन्ट की महगी तालीम और गुरु से टीचर बनते युग ने आदर, सत्कार, सम्मान की भावनाओं का हनन तो किया ही शिष्य के मन में गुरु को अपना जरखरीद एम्पलाइ होने का विचार भी रख दिया। चन्द सिक्कों की खनक पर हासिल होती शिक्षा के बल पर चेले के शक्कर होने और गुरुओं के गुड़ बनकर ठहरे रह जाने का दौर भी तेज़ी से आया, आकर चिरस्थायी बनकर ही रह गया।
सियासत के चेलों को अपने गुरुओं से आगे निकल जाने और अहसान फरामोशी के दम्भ में पीछे मुड़कर भी न देखने के दर्जनों किस्से अकेले मप्र में ही भरे पड़े हैं। पिछले मुखिया से लेकर मौजूदा अगुआ तक इसमें शामिल किए जा सकते हैं। चेन्नई से लेकर दिल्ली और गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक ऐसी कई मिसालों से भरा पड़ा है।
सहाफत की साफ-सुथरी और साहित्यिक डगर तक भी गुरुओं को ठेन्गा दिखाते शिष्यों से खाली नजर नहीं आती है। जहाँ कुर्सी और पद प्रेम इस कदर हावी हो चुका है कि चेले वक्त के मजबूर गुरु को साथ रखने में इसलिए कतराते दिखते हैं कि गुरु की मौजूदगी उनकी मिथ्या शक्कर पर गुड़ का काढा बनकर न छा जाए।
ये गुरु बन्टाधार!
'गुरु' की बचीखुची साख को क्रिकेटर, कामेन्टेटर, नेता और हसोडे नवजोत सिंह सिद्धु ने तीन-तेरह कर छोड़ दिया, जिसने अपना तकिया कलाम ही 'गुरु' बना रखा है। हर ऐरे गेरे नत्थु खेरे को वे इस लकब से नवाजते रहते हैं।