Uttar pradesh

इज़रायल नीति में बदलाव से क्या हासिल होगा?

गोपाल कृष्ण गांधी  मैं यह नहीं कहना चाहता कि किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री को कभी इज़रायल नहीं जाना चाहिए. लेकिन ये यात्रा कुछ इस तरह से ...


गोपाल कृष्ण गांधी 
मैं यह नहीं कहना चाहता कि किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री को कभी इज़रायल नहीं जाना चाहिए. लेकिन ये यात्रा कुछ इस तरह से हुई जैसे अरब कहीं है ही नहीं और फिलिस्तीनी देश बस एक मिथक है. उस पवित्र ज़मीन की एकमात्र हकीकत इज़रायल, इज़रायल और सिर्फ इज़रायल है.

1947 में जब अंग्रेजों द्वारा फिलिस्तीन का सवाल संयुक्त राष्ट्र के सामने लाया गया, उस समय से ही भारत ने इज़रायल के मसले पर एक संतुलित रुख अख्तियार किया है और व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को कभी आंखों से ओझल नहीं होने दिया है.

भारत इस मसले में शामिल दोनों प्रमुख समुदायों के प्रति पूरी तरह से निष्पक्ष रहना चाहता था और वह ऐसा करने में कामयाब भी रहा है.

विश्वयुद्ध की मार झेलने वाले यहूदियों के प्रति, जो इज़रायल में ब्रिटेन की मदद से बसाए गए और उन अरबों के प्रति भी, जिनकी जमीन से उन्हें विस्थापित कर दिया गया.

अपनी ईमानदारी और निष्पक्षता के कारण हर किसी ने भारत के पक्ष को सराहा और सम्मानित किया है. अंतरराष्ट्रीय संरक्षण में इज़रायल के गठन के बाद भारत ने इस नए देश को मान्यता प्रदान की.

जब इज़रायल ने फिलिस्तीन पर हमला किया और उसकी जमीन पर कब्जा कर लिया, जिसने हजारों अरबों को शरणार्थी बना डाला, तब भारत ने इसकी निंदा करते हुए इसे पूरी तरह से गलत और घिनौना कदम करार दिया.

जब इज़रायल ने फिलिस्तीन पर अपने कब्जे को बरकरार रखा और उसका युद्धोन्माद बढ़ता गया, तब भारत, तेल अवीव के साथ औपचारिक राजनयिक रिश्तों में पीछे हट गया और फिलिस्तीनी नेताओं, खासतौर पर यासिर अराफात के साथ इसके रिश्ते प्रगाढ़ हो गए.

जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने इज़रायल को मान्यता दी थी, से लेकर नरसिंह राव, जिन्होंने इज़रायल के साथ राजनयिक संबंधों की शुरुआत की और अटल बिहारी वाजपेयी, जिन्होंने तत्कालील इज़रायल प्रधानमंत्री की भारत में आगवानी की, से लेकर मनमोहन सिंह तक, किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने कभी इज़रायल की यात्रा नहीं की.

इज़रायल, अरब दुनिया और पूरे विश्व को यह बताना महत्वपूर्ण था कि जब तक इज़रायल विस्तारवादी नीति जारी रखेगा और संयुक्त राष्ट्र के अनगिनत प्रस्तावों को उल्लंघन करते हुए बचे हुए फिलिस्तीनी हिस्से पर अपना वर्चस्व स्थापित करने और उसे जीतने की कोशिश जारी रखेगा, तब तक वह भारत की निगाह में एक अपराधी रहेगा.

दुनिया के यहूदियों के लिए न्याय एक बात है, यहूदीवाद बिल्कुल अलग चीज है. भारत ने अरबों की जवाबी हिंसा को भी निर्दोष करार नहीं दिया. भारत का पक्ष यही रहा कि अरब जनता के लिए न्याय का सवाल एक चीज है, मगर हमास की हिंसक आतंकी कार्रवाई बिल्कुल अगल चीज.

भारत की नीति के केंद्र में यह समझ थी कि समस्या की जड़ में यह जमीनी सच्चाई है कि इज़रायल ने अंतरराष्ट्रीय आपत्तियों और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों, जिन्हें पारित कराने में भारत भी मुखरता से शामिल था, को धता बताते हुए सैन्य शक्ति के बल पर अरबों की बेहद मूल्यवान धरती पर कब्जा कर रखा है.

जब तक फिलिस्तीन पर कब्जे की यह जमीनी सच्चाई नहीं बदलती, तब तक भारत की इस निष्पक्ष और न्यायोचित नीति में बदलाव की कोई जरूरत नहीं थी.

लेकिन अब इसे बदल दिया गया है.

मेरा मानना है कि नरेंद्र मोदी को हाल ही में समाप्त हुई इज़रायली यात्रा पर जाने के लिए दी गई सलाह तो गलत थी ही, इसे एक प्रेम-समारोह में बदल देना तो और भी बदतर था.

इस यात्रा के निहितार्थों पर चर्चा करने से पहले, फिलिस्तीन-इज़रायल समस्या के इतिहास के पन्नों को पलटना जरूरी है.

करीब, 100 साल पहले, 23 अगस्त, 1917 को हाउस ऑफ कॉमंस (इंग्लैंड की संसद) ने यहूदियों के लिए फिलिस्तीन के विषय पर चर्चा की. इसे आज बालफर घोषणा के तौर पर याद किया जाता है.

यह नाम तब के ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर जेम्स बालफर पर पड़ा. उस समय ब्रिटिश मंत्रिमंडल में एकमात्र यहूदी थे, एडवार्ड सैम्युएल मॉन्टेग्यू, जिन्होंने बाद में भारत के सेक्रेटरी ऑफ द स्टेट के तौर पर काम किया.

यह उम्मीद की जा सकती है कि मॉन्टेग्येू ने यहूदियों के लिए फिलिस्तीन के विचार का समर्थन किया होगा. लेकिन, एक निष्पक्ष विचारोंवाले मॉन्टेग्यू ने वास्तव में इसके उलट किया.

उन्होंने बेहद भावावेशित होकर इस प्रस्ताव का विरोध किया और कैबिनेट को एक ज्ञापन सौंपा जिसमें उन्होंने कहा,

‘यहूदीवाद मुझे हमेशा एक शरारती राजनीतिक संप्रदाय लगता रहा है, जिसको समर्थन देना किसी भी देशभक्त नागरिक के लिए संभव नहीं हो सकता… मैं यह जोर देकर कहता हूं कि यहूदी राष्ट्र जैसी कोई चीज नहीं है. जब यहूदियों से यह कहा जाएगा कि फिलिस्तीन उनका राष्ट्रीय घर है, तब हर देश अपने यहूदी नागरिकों से छुटकारा पाना चाहेगा. और आप ऐसी स्थिति के सामने होंगे, जहां आप पाएंगे कि फिलिस्तीन की आबादी वहां के वर्तमान निवासियों को बाहर निकाल रही है और वहां के सर्वोत्तम पर कब्जा जमा रही है…यह सही है कि यहूदियों के इतिहास में फिलिस्तीन की बड़ी अहमियत है, लेकिन ये बात आधुनिक मुस्लिम इतिहास के लिए भी सही है….मैं कहना चाहूंगा…कि सरकार फिलिस्तीन में यहूदियों के बसने और जीवन की पूर्ण स्वतंत्रता सुनिश्चित कराने के लिए हर मुमकिन कदम उठाने के लिए तैयार होगी. यह दूसरे धर्म को मानने वाले उस देश के निवासियों के साथ समानता के आधार किया जायेगा. मैं सरकार से दरख्वास्त करना चाहूंगा कि उसे इस मामले में इससे आगे नहीं जाना चाहिए.’

बालफर ने मॉन्टेग्यू की बातों के कुछ अंशों को तो माना, लेकिन असली बात को दरकिनार कर दिया. 2 नवंबर, 1917 की घोषणा में कहा गया,

‘महामहिम की सरकार फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के राष्ट्रीय-गृह (होमलैंड) के निर्माण के पक्ष मे है और इस मकसद को पूरा करने के लिए वह अपनी पूरी शक्ति लगाएगी. यह बात समझ कर रखी जानी चाहिए कि कोई भी ऐसा काम नहीं किया जाएगा जो फिलिस्तीन के वर्तमान गैर-यहूदी समुदायों के नागरिक और धार्मिक अघिकारों के प्रति पूर्वाग्रहपूर्ण हो या किसी भी दूसरे देश में यहूदियों को मिले अधिकारों और राजनीतिक प्रतिष्ठा को कम करने वाला हो.’

इस तरह फिलिस्तीन के अलग राज्य का ‘आदेश’ प्राप्त हुआ. यह आदेश दिया ब्रिटेन ने.

संतुलित संबंधों का भारत का लंबा इतिहास

1937 में नेहरू ने कृष्णा मेनन को फिलिस्तीन को लेकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पक्ष के बारे में लिखा: ‘हमारा पक्ष ये है कि फिलिस्तीन को मूल रूप से एक स्वतंत्र अरब देश ही रहना चाहिए. दूसरी बात, अरबों और यहूदियों को मिलकर फिलिस्तीन की स्वतंत्रता की बुनियाद पर अपने मतभेदों को सुलझाना चाहिए.’

1938 में जब दूसरे विश्वयुद्ध के बादल मंडरा रहे थे, महात्मा गांधी ने फिलिस्तीन में यहूदियों की गृहभूमि (होमलैंड) बनाने की फिर से शुरू की गई कोशिशों पर हरिजन में लिखा था,

‘बाइबल में आया फिलिस्तीन कोई जमीन का टुकड़ा नहीं है. यह उनके हृदय में है. लेकिन अगर वे फिलिस्तीन को उनके राष्ट्रीय गृह (नेशनल होम) के तौर पर देखना ही चाहते हैं, तो अंग्रेजों की बंदूक के संरक्षण में इसमें दाखिल होना गलत है…वे फिलिस्तीन में अरबों की सदिच्छा के सहारे ही बस सकते हैं.’

और इसी पत्रिका में उन्होंने 26 नवंबर, 1938 को जो लिखा उसे भुलाया नहीं जा सकता,

‘फिलिस्तीन उसी तरह से अरबों का है, जिस तरह इंग्लैंड, अंग्रेजों का है और फ्रांस, फ्रांसीसियों का है. अरबों पर यहूदियों को थोपना गलत और अमानवीय है. आज फिलिस्तीन में जो कुछ भी हो रहा है, उसे किसी भी नैतिक आचार संहिता द्वारा सही नहीं ठहराया जा सकता. इन आदेशों का अनुमोदन सिर्फ पिछला युद्ध करता है.फिलिस्तीन से स्वाभिमानी अरबों को हटाकर वहां यहूदियों को आंशिक या पूर्ण रूप से राष्ट्रीय गृह के तौर पर बसाना मानवता के खिलाफ अपराध होगा.’

‘मानवता के खिलाफ अपराध’ करार देना, कोई साधारण आलोचना नहीं है. और यह मुख्य तौर पर अंग्रेजों की आलोचना थी, जो अरबों के साथ किए गए वादे का उल्लंघन कर रहे थे, बल्कि वे बालफर घोषणा की उन शर्तों को भी मानने से इनकार कर रहे थे, जिसमें फिलिस्तीन के गैर-यहूदी लोगों के अधिकारों की रक्षा की बात की गई थी.

1947 में यहूदीवादी आतंकवाद के मद्देनजर ब्रिटेन ‘फिलिस्तीन के सवाल’ को संयुक्त राष्ट्र की महासभा में लेकर गया. महासभा ने मई, 1947 में एक विशेष सत्र में इस सवाल पर चर्चा की. उस समय, गुलामी से तुरंत आजाद हुए भारत ने क्या किया?

भारत ने संतुलन के साथ सिद्धांतों पर चल कर दिखाया. किसी को इस बात का यकीन नहीं था कि दुनियाभर के यहूदियों को फिलिस्तीन में बसाना सही होगा, लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध की भयावहता ने ऐसी आशंकाओं को दबा दिया.

भारत के एक प्रमुख राष्ट्रवादी नेता आसफ अली, महासभा के अध्यक्ष थे. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कोई भी फैसला लेने से पहले अरब उच्च स्तरीय समिति और यहूदी एजेंसी का पक्ष सुना जाना चाहिए. ऐसा किया भी गया. यह प्रभावित हुए/होने वाले लोगों, यहूदी और अरब दोनों के अधिकारों की स्वीकृति थी.

भारत ने फिलिस्तीन में दो-राष्ट्र के विचार को समर्थन दिया. यह एक दूरदर्शितापूर्ण विचार था. उस समय, जब उपनिवेशवाद के खात्मे की लहर शुरू नहीं हुई थी, संयुक्त राष्ट्र में एशियाई-अफ्रीकी देशों की संख्या काफी कम थी.

महासभा पर पश्चिमी और लैटिन अमेरिकी देशों का दबदबा था. इस्राइल ने अपने पक्ष में आक्रामक ढंग से प्रचार करके जनमत तैयार किया और विभाजन को एक मत से स्वीकार कर लिया गया.

उस प्रस्ताव के बाद, इससे पहले कि संयुक्त राष्ट्र आगे की किसी कार्रवाई पर विचार कर पाता, यहूदीवादी उग्रपंथियों की तरफ से हिंसा की घटनाएं अंजाम दी गईं. और जिस तरह से रात के बाद सवेरा आता है, उसी तरह से चार पड़ोसी अरब देशों ने जवाबी हमला किया.

अरबों के साथ दोस्ताना संबंध की पैरोकारी करनेवाले यहूदियों को चुप करा दिया गया. 1948 में संयुक्त राष्ट्र ने मध्यस्थता करके इज़रायल और चार अरब देशों के बीच युद्धविराम करवाया. इसमें इज़रायल को एक बड़ा फायदा हुआ. उसे 1949 में संयुक्त राष्ट्र में शामिल कर लिया गया.

भारत ने इस हकीकत को स्वीकार कर लिया और इज़रायल ने बाॅम्बे में एक काॅन्सुलेट की स्थापना की. हालांकि, तब दोनों के बीच राजनयिक संबंध स्थापित नहीं हुए थे.

भारत ने लगातार जमीनी तथ्यों को स्वीकार किया है: अरबों को समर्थन मगर यहूदियों के निष्कासन को नहीं. और बाद में शेष फिलिस्तीन पर इज़रायल के कब्जे के बाद, भारत ने इज़रायल पीछे हटने की मांग की है.

इस कहानी को विस्तार से याद करना भारत की ईमानदारी को रेखांकित करने के लिए जरूरी था, जो निष्पक्ष था मगर तटस्थ नहीं था और गहराई तक मूल्य आधारित और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों से जुड़ा हुआ था.

मोदी ने क्या छोड़ दिया

आइए, आज के समय में आते हैं.

राष्ट्रीय चुनावों में अपनी सरकार की हार से कुछ ही पहले, 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों और ‘शांति के लिए भूमि’ के फाॅर्मूले के आधार पर पश्चिमी एशिया में न्यायोचित, समग्र और टिकाऊ शांति पर बल दिया है.

इसी साल इज़रायली प्रधानमंत्री एरियल शैराॅन के नई दिल्ली दौरे पर प्रधानमंत्री वाजपेयी ने उनसे कहा कि फिलिस्तीनी शहरों और दूसरे ‘कब्जे’ में किए गए क्षेत्रों से ‘तुरंत इज़रायलियों की वापसी’ की भारत की मांग में कोई बदलाव नहीं आया है.

इसके बाद गाज़ा में इज़रायल की कार्रवाइयों को युद्ध अपराध करार दिया गया. इसने दुनिया की नाराजगी को बढ़ाने का काम किया. 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ हफ्तों के बाद भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के साथ मिलकर इसकी भर्त्सना की.

लेकिन, 2017 की गर्मियों में सब कुछ बदल गया है.

मैं यह नहीं कहना चाहता कि सिर्फ इसलिए कि कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री कभी इज़रायल नहीं गया, किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री को कभी वहां नहीं जाना चाहिए. इसलिए प्रधानमंत्री की यात्रा पर मैं कोई आपत्ति नहीं करूंगा.

लेकिन मेरे लिए आश्चर्यजनक ही नहीं बल्कि हिला देने वाली बात ये है कि यह यात्रा कुछ इस तरह से हुई जैसे अरब कहीं है ही नहीं और फिलिस्तीनी देश बस एक मिथक है और उस पवित्र जमीन की एकमात्र हकीकत इज़रायल, इज़रायल और सिर्फ इज़रायल है.

मोदी-नेतन्याहू वार्ता के बाद जारी किए गए बयान में कहीं भी फिलिस्तीन पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का एक भी जिक्र नहीं है, न ही दो-राष्ट्र के समाधान का कोई जिक्र है, न ही बातचीत के महत्व पर ही कुछ कहा गया है.

फिलिस्तीन को परदे के पीछे धकेल कर भारत ने इज़रायल और फिलिस्तीन को किसी हल तक पहुंचने में मदद करने के मौके को गंवा दिया है. भारत ने बेहद बेशर्म तरीके से ‘समरथ को नहिं दोष गोसाईं’ के विचार को स्वीकार कर लिया है.

कोई विदेश अधिकारी ऐसा नहीं होगा जो ऐसी यात्रा की तैयारी कर रहे किसी प्रधानमंत्री को इसके नफा-नुकसान के बारे में न बताए. हम यह यकीन के साथ कह सकते हैं कि हमारे विदेश मंत्रालय ने प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह जरूर किया होगा.

हम इस बारे में निश्चिंत हो सकते हैं कि मोदी को किन फायदों के बारे में बताया गया होगा (उनके दिमाग को पढ़ते हुए). लेकिन, हम यह नहीं जानते कि उन्हें अगर इसके नुकसान के बारे में सचमुच कुछ बताया गया, तो क्या उन्हें माॅन्टेग्यू की उस ऐतिहासिक आपत्ति के बारे में बताया गया था, जिसमें बालफर घोषणा में फिलिस्तीनियों के लिए सुरक्षा की गारंटी लेने की बात की गई थी?

या फिर उन्हें 1948 के फिलिस्तीनियों के जाति-संहार के बारे में बताया गया था? या उन्हें फिलिस्तीन के किंग डेविड होटल पर हुए उस बम धमाके के बारे में बताया गया था जिसमें संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि काउंट बर्नाडोट मारे गए थे?

क्या उन्हें नेहरू और उनके उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री द्वारा इज़रायल की पहचान को कमजोर किए बगैर फिलिस्तीन को बिना शर्त समर्थन दिए जाने के बारे में कुछ बताया गया था?

क्या उन्हें 1967 के युद्ध के बारे में बताया गया था, जिसके बाद इंदिरा गांधी ने फिलिस्तीन के प्रति भारत की ‘पूर्ण सहानुभूति’ प्रकट की थी?

क्या उन्हें 1973 के युद्ध और बिल्कुल करीब के गाजा पर किए गए घिनौने हमले के बारे कुछ बताया गया जिसमें, जैसा कि कमल मित्र चिनाॅय ने हमें याद दिलाया है, 2200 फिलिस्तीनी मारे गए थे, जिनमें 550 बच्चे भी शामिल थे? हम यह कभी नहीं जान पाएंगे, खास तौर पर आरटीआई एक्ट में शामिल छूटों को देखते हुए.

बिना किसी जमानत के दूसरी बालफर घोषणा

इस यात्रा ने एक नई रणनीतिक साझेदारी की घोषणा की है. एक तरह से यह इस तथ्य का औपचारीकरण है कि भारत इज़रायल सैन्य साजोसामान का सबसे बड़ा खरीदार है और रूस के बाद इज़रायल, भारत का सबसे बड़ा रक्षा सप्लायर है. लेकिन यह घोषणा इससे ज्यादा, कहीं ज्यादा है.

वास्तव में यह बगैर किसी जमानत के दूसरी बालफर घोषणा है. इसका असर यह है कि अगर इज़रायल एक हकीकत है, तो क्षेत्र में उसकी प्रभुता भी एक सच्चाई है, इस तरह से फिलिस्तीन पर कब्जा भी एक सच है.

यह रणनीतिक साझेदारी एक नई धुरी है, जो दुनिया को यह बता रही है कि भारत और इज़रायल के हित साझे तो हैं, लेकिन कृषि और मेडिसिन के क्षेत्र में नहीं, बल्कि बेनाम मगर संदेहों से परे शत्रुओं के खिलाफ सैन्य कार्रवाई के मामले में. यात्रा के बाद भारत-इज़रायल प्रेम समारोह का सबसे महत्वपूर्ण चित्र दोनों देशों द्वारा साथ मिलकर भारत में मिसाइल निर्माण करने की घोषणा है.

साझेदारी की यह सामरिक प्रकृति, तकनीकी-आर्थिक-सैनिक संबंधों से कहीं आगे तक जाती है. यह अब पूरी तरह से राजनीतिक और वैचारिक है. भारत ने अब कब्जे और पाशविक दमन को वैधता दे दी है. इसका संदेश यह भी है कि अब एक देश अनुमानित खतरे को टालने के लिए आगे बढ़कर युद्ध की शुरुआत कर सकता है.

यह भी कि यह आक्रमण का फल अपने पास रख सकता है. यह भी कि यह कब्जा किए गए क्षेत्रों पर से हटे बिना, बातचीत की शर्तें तय कर सकता है. यह भी कि यह अब सजा से बिना डरे कब्जाए गए क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन कर सकता है.

सभ्य अंतरराष्ट्रीय संबंधों के हिसाब से इन्हें असंभव विचार कहा जा सकता है. इन पर भारत का एक स्पष्ट रुख था. अब वह रुख आंधी में उड़ गया है. मध्य-पूर्व (मिडिल ईस्ट) में रह रहे भारतीयों की सुरक्षा को खतरे में डालने और भारत में तनावों को बढ़ाने के अलावा बेहद महत्वपूर्ण ढंग से इसने भारतीय विदेश नीति के बुनियादी उसूलों को तिलांजलि देने की घोषणा की है.

कोई भी सरकार अपने पूर्ववर्तियों की नीतियों को छोड़ सकती है. लेकिन फिलिस्तीन का सवाल नीति का सवाल न होकर, सिद्धांतों का सवाल रहा है. सिद्धांतों का इतिहास हमारी वर्तमान सरकार का पसंदीदा विषय नहीं है. यह इतिहास को फिर से लिखने की इच्छा रखती है. खुशकिस्मती से ऐसे लोग भी हैं, जो इतिहास को याद रखते हैं और वे इसे भूलने नहीं देंगे. साभार द वायर

(गोपाल कृष्ण गांधी पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल हैं. वे दक्षिण अफ्रीका में भारत के राजदूत भी रहे हैं. )
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