अमन पठान वैसे तो यूपी में चुनाव ख़त्म हो चुका है लेकिन प्रत्याशियों की हार जीत पर अभी मंथन जारी है. चुनाव चाहें कोई भी हो परन्तु आम आदम...
अमन पठान
वैसे तो यूपी में चुनाव ख़त्म हो चुका है लेकिन प्रत्याशियों की हार जीत पर अभी मंथन जारी है. चुनाव चाहें कोई भी हो परन्तु आम आदमी यानि गरीब ही प्रत्याशियों की हार जीत का सबब बनता है. क्योंकि वही होता है जो यह सोचकर मतदान करता है कि यह जीत गया तो वह उनकी तकदीर बदल देगा, लेकिन ऐसा कभी होता नहीं है.
ऐसा भी नहीं है कि देश में अच्छे लोगों का अकाल हो या चुनाव मैदान में टाल ठोंकने वालों में समाजसेवा का जूनून न हो या जो गरीब जनता के लिए कुछ अलग करने का ज़ज्बा न रखते हों, लेकिन गरीब जनता उम्हें मौका देती और बबूल का पेड़ लगाकर आम खाने की उम्मीद करती है. क्या कभी बबूल के पेड़ से आम खाने को मिल सकते हैं.
एक आम आदमी की तकलीफ एक आम आदमी ही समझ सकता है, क्योंकि वह गरीबों के दुःख दर्द से अच्छी तरह वाकिफ होता है. जब भी कोई आम आदमी गरीबों के हक़ की लड़ाई लड़ने की सोच लेकर चुनाव मैदान में उतरता है तो उसे गरीब ही यह कहकर नकार देते हैं यह क्या उससे मुकाबला करेगा. खुद के घर में तो चूहे फाका कर रहे हैं और करोड़पतियों के सामने चुनाव जीतने की हुंकार भर रहा है. लिहाजा गरीबों से सच्ची हमदर्दी रखने वाला चुनाव हार जाता है और गरीबों के हमदर्द होने का दिखावा करने वाले बहरूपिये चुनाव जीत जाते हैं?
अमीर नेताओं से विकास की उम्मीद रखने वाले गरीबों के हिस्से आती है नेता जी फटकार या आश्वासन ? क्योंकि नेता जी ने उन्हें चुनाव के दौरान जो मुर्ग मुसल्लम, बिरयानी, पूड़ी कचौड़ी खिलाई थी या दारू पिलाई थी उसकी भरपाई भी तो करनी होती है. ऐसा भी नही है कि अपनी जिम्मेदारी का निर्वाहन ठीक से नही करते. वह जिम्मेदारी को जिम्मेदारी से निभाते हैं. विकास भी कराते हैं लेकिन बस गरीबों की फरियाद नहीं सुनते हैं. मंच पर गरीबों से हमदर्दी भरे बड़े बड़े भाषण देते हैं. जब कोई गरीब फरियादी उनकी चौखट पर फरियाद लेकर पहुँचता है तो पता चलता है कि नेता जी लखनऊ गए हुए होते हैं या फिर आराम कर रहे होते हैं.
जब तक फरियादी को यह एहसास नही हो जाता कि वह बहुत बड़े नेता हैं तब तक नेता जी उससे रूबरू नही होते, क्योंकि चुनाव के दौरान नेता जी ने भी हर घर जाकर उनके नखरे सहे होते हैं. तो नेता जी को अपने जलबे दिखाना भी जरूरी होता है. इन्हीं नेताओं की कारगुजारियों से त्रस्त होकर जब कोई गरीब चुनाव मैदान में उतरता है तो जनता उसे सिक्कों की खनक सुनकर नकार देती है और पांच साल तक चिल्लाती है कि गरीबों की कोई नहीं सुनता और गरीबों के लिए कोई कुछ नही करता. क्या कभी गरीबों ने किसी गरीब को जिताया है? पकवान खाने वाला क्या जाने कि फाका क्या होता है.
यूपी में तो जातिवाद और धर्मवाद इतना हावी हो चुका है कि चुनाव चाहें कोई भी हो जीतेगा वही जितने पास दौलत की खनक होने के साथ उसकी बिरादरी के वोटरों की फ़ौज हो या बेहतरीन झूठ बोलने की कला हो. जब तक देख में ऐसा चलता रहेगा तब तक गरीबों के वोट लेकर अमीर सत्ता का सुख भोगते रहेंगे और गरीब नेताओं की फटकार खाते रहेंगे या नेताओं की दलाली का शिकार होते रहेंगे.
(लेखक केयर ऑफ़ मीडिया के संपादक हैं)