गरीब के बच्चे अगर बड़ी यूनिवर्सिटियों की फीस नहीं भर सकते तो उनको वहां पढ़ने का कोई अधिकार नहीं
नदीम अख्तर
मैं देश और समाज में पहले से चली आ रही एकरूपता व भिन्नता कायम रखने का प्रबल समर्थक हूँ। इसलिए मेरा ये दृढ़ मत है कि गरीब के बच्चे अगर बड़ी यूनिवर्सिटियों और शिक्षा संस्थानों की फीस नहीं भर सकते तो उनको वहां पढ़ने और सपने देखने का कोई अधिकार नहीं। बेहतर है वे पंक्चर लगाएं, समोसे तलें, रेहड़ी-पटरी पर ठेला लगाएं और मनरेगा में रोजगार ढूंढें।
बड़ी जगहों पे पढ़ने का हक सिर्फ अमीरों और एजुकेशन लोन लेकर डिफॉल्टर बनने वाले मिडिल क्लास को है। डॉक्टर, इंजीनियर और IAS बनने का जन्मसिद्ध अधिकार सिर्फ उन्हीं के बच्चों को है। गरीबों के बच्चे भी अगर आईएएस-आईपीएस बनने लगे तो देश में पहले से चली आ रही एकरूपता ध्वस्त हो जाएगी, जिसका बहुत ख्याल रखने की ज़रूरत है।
इस एकरूपता को ऐसे समझिये। जब गरीबों और उनके बच्चों के पास पैसे नहीं हैं तो वे रेल में फर्स्ट एसी या थर्ड एसी में सफर करते हैं क्या? नहीं ना! टॉयलेट में ठूंस कर जनरल डिब्बे में ही चलते हैं ना! तो फिर कभी आपने इस बाबत आंदोलन होते देखा है कि गरीब के बच्चे भी ट्रेन की एसी की ठंडी हवा खाते जाएं, सरकार इसके लिए सब्सिडी दे? नहीं ना! जिसकी जितनी औकात होती है, वो उसी हिसाब से सफर करता है। कांग्रेसी सांसद शशि थरूर के शब्दों में गरीब तो कैटल क्लास में सफर करने के लिए ही पैदा हुआ है। उसकी वही नियति है।
ठीक वैसे ही चाहे मैकडी में खाना हो या फिर हवाई जहाज़ से उड़ना हो या फिर विदेश पढ़ने जाना हो, सिर्फ अमीरों के बच्चों को ये सुख हासिल है। गरीब के बच्चे बेहतर है कि ना पढ़ें और अगर पढ़ने का ज्यादा शौक चर्राया है तो वैसे खैराती स्कूल या कॉलेज ढूंढें, जिसकी बिल्डिंग में छत ना हो और जहां टीचर-प्रोफेसर के दर्शन करना भगवान के दर्शन से कम नहीं। आज़ादी के बाद से ही ये सारी व्यवस्थाएं हमारे देश में पहले से बनी हुई हैं और सर्व-स्वीकार्य हैं। इन विषयों पे अमीरों और गरीबों के बीच के फासले को पाटने के लिए आपने कभी आंदोलन होते देखा है क्या? नहीं देखा है। ठीक कहा।
सो देशहित में ये व्यवस्था बनी रहनी चाहिए। जिसकी जेब में ज्यादा पैसा होगा, वह ज्यादा टैक्स भरेगा और उसी की औलादें पढ़ेंगी-लिखेंगी ताकि वह कमाकर अपने बाप से भी ज्यादा टैक्स भरे। और ऐसे रईसों से जब टैक्स ज्यादा आएगा तो देश की कमाई बढ़ेगी, फिर उसी कमाई से गिनती गिनकर मनरेगा की मजदूरी दी जाएगी, जो गरीब के बच्चों को मिलेगी। देखिये! कितनी अच्छी व्यवस्था है। अमीर का बच्चा बड़ी जगह पढ़के ज्यादा कमा रहा है और सरकार को टैक्स दे रहा है और उसी टैक्स से गरीब के नौजवान बच्चों का भी पेट पल रहा है। अब इससे ज्यादा आदर्श स्थिति और क्या होगी? क्या जरूरत है गरीब के बच्चों को ज्यादा पढ़ने की और वो भी टॉप की यूनिवर्सिटीज में?? मनरेगा में मजदूरी करें, समोसे-पकोड़े तलें। ये भी तो देश की तरक्की और आर्थिक विकास में योगदान ही है। और योगदान छोटा-बड़ा नहीं होता।
बात सिम्पल है। जिसकी जेब में रुपया होगा, वह इस देश में अपने लिए सुविधाएं खरीदेगा। जैसे कार, टीभी, एसी, बंगला, आदि-अनादि। वैसे ही शिक्षा भी है। जिसके पास है माल, उसके साथ तालीम का कदमताल। कितनी बढ़िया तुकबन्दी हो गयी। माल है तो सुख के साथ कदमताल है। गरीबों को क्या हक है कि वो ट्रेन के जनरल डिब्बे के टॉयलेट से निकलकर सीधे फर्स्ट एसी कोच में सफर का सपना देखे? माल है तो आओ, टिकट खरीदो और चढ़ जाओ गाड़ी में! किसने रोका है? और पैसे नहीं हैं तो देश की तरक्की में अपनी मेहनत से हाथ बंटाओ ना यार! मनरेगा में मजूरी करो। देश सेवा करो। यहां साधन का महत्व नहीं है। साध्य देखो। देश सेवा आपका साध्य है, फिर वह चाहे जिस भी रूप में हो।
अब ये दुहाई मत देने लगना कि हमारे संविधान में राज्य यानी देश को लोककल्याणकारी कहा गया है, इसलिए ये सरकार का फर्ज है कि वह गरीबों की सहायता करे यानी लोक यानी आमजन का कल्याण करे। क्यों करे भाई? हमारे संविधान में इसकी कोई बाध्यता है क्या? हमारे गुणी संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में ऐसा आदर्श स्थापित होने की बात तो कह दी पर राज्य के लिए इसे क़ानूनन अनिवार्य नहीं किया।
मतलब राज्य का मन करे तो अपने गरीब नागरिकों को खैरात बांट दे और अगर ना बांटे तो मौलिक अधिकारों की तरह आप राज्य को कोर्ट में नहीं घसीट सकते। कितनी अच्छी व्यवस्था है। वाह! अब राज्य गरीबों के ही कल्याण में लगा रहेगा, अपनी सब दौलत उन्हीं पे लुटा देगा तो देश में उद्योगों का विकास कैसे होगा? बैंक उद्योगपतियों को एक्सपेरिमेंट के लिए हज़ारों करोड़ का कर्ज कैसे देंगे और जब वह कर्ज डूब जाएगा तो फिर आम जनता के बचत के जमा पैसों से उनको दुबारा एक्सपेरिमेंट के लिए कर्ज कैसे देगा बैंक?
इसलिए देश के विकास के लिए ये ज़रूरी है कि हमारे नामचीन उद्योगपतियों को हज़ारों करोड़ का लोन मिलता रहे, वह इसे डुबाते रहें और उनको फिर लोन दिया जाए। इससे देश की अर्थव्यवस्था में गर्माहट बनी रहती है। कैश फ्लो होता रहता है। अब गरीब चाहता है कि राज्य उनके बच्चों की फीस कम कर दे? क्यों भला? फिर तो कल तुम कहोगे कि ट्रेन के एसी कोच का टिकट भी कम करो, हवाई जहाज़ का टिकट भी बस के रेट में दो और होटल ताज का किराया oyo rooms से भी कम करो! ये क्या बात हुई? देश व्यवस्था से चलता है और आज़ादी के बाद इस देश में व्यवस्था यही रही है कि अमीर एक अलग क्लास है, मिडिल एक अलग और गरीब एक अलग क्लास। सब अपनी औकात के हिसाब से जीते हैं। फिर शिक्षा में गरीब के बच्चों को अमीरों के बराबर बेनिफिट क्यों चाहिए? जाके देखिये एमिटी और अशोका यूनिवर्सिटी। सिर्फ रईसों के बच्चे वहां जाते हैं।
एक क्लास है वहां जो इसरो का अगला यान वृहस्पति ग्रह पे भेजने के लिए दिनरात मेहनत कर रहा है। और एक गरीब का बच्चा है कि उसको हरहरी सूझ रहा है। शिक्षा में फीस कम देंगे? काहे भाई? जब देश में हर जगह क्लास डिवीजन है तो शिक्षा में आपको क्यों प्रिविलेज चाहिए? जाके बोलो ना प्राइवेट यूनिवर्सिटीज को फीस कम करने के लिए! सिर्फ सरकारी संस्थानों को बिगाड़ने में क्यों लगे रहते हो यार! नहीं दे सकते फीस तो जाओ ना! खेती करो, मजूरी करो, बूट पॉलिश करो, सीवर साफ करो और कुछ भी करो पर बड़ी जगह मुफ्त में पढ़ने के सपने मत देखो।
ये संप्रभु गणतंत्र है, कोई लोककल्याणकारी राज्य नहीं कि लंगर बांटते रहेंगे। चलो निकलो यार! देश का कीमती टाइम खराब मत करो। तुम्ही लोगों की वजह से हमारा चन्द्रयान ठीक से चांद पे उतर नहीं पाया। बस सस्ती शिक्षा ले के घुस गए होंगे इसरो में! और देखो कांड हो गया! आप लोग जाकर गाय भैंस कराओ, उसी के काबिल हो। चांद और मंगल की बातें सिर्फ अमीरों के बच्चे समझ सकते हैं। तुम्हारे पास तो एक फ़टी दूरबीन भी नहीं और चले हो चाँद का खाब देखने। हुड़-हट्ट!!! ना जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं?? गरीब कहीं के!!