यूनिवर्सिटी हमेशा ही कुछ देती है?
रवीश कुमार
कैलिफ़ोर्निया के रास्ते बहुत सुंदर हैं। एक पल भीड़-भाड़ में रहते हैं तो एक पल में समंदर के ऊपर हवाओं से उलझने लगते हैं तो अचानक पहाड़ के बीच से गुज़रने लगते हैं। बहुत देर तक सीधे चलते हैं फिर घुमावदार हो जाते हैं और फिर किसी भव्य पुल से उतरते हुए शांत हो जाते हैं। इन्हीं बदलते रास्तों का आख़िरी पड़ाव वो ढलान था जिससे उतर कर मैं यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, बर्कली में दाखिल होता हूँ।
दायीं तरफ़ बिज़नेस स्कूल की इमारत था और सामने ऑप्टोमेट्री। एक पतली सी गली जा ठहरती है विमेन्स फ़ैकल्टी क्लब के सामने। भूरे रंग की यह इमारत 1923 में बनकर तैयार हुई थी। मगर इस क्लब की कल्पना 100 साल पहले यानि 1919 में बन गई थी।
यही वो साल है जब मिलान में 23 मार्च 1919 को मुसोलिनी अपने कुछेक साथियों के साथ जमा होकर फासीवाद का एलान कर रहा था। उसके 9 महीने बाद बर्कली में काम कर रहीं 76 महिला फ़ैकल्टी जमा होती हैं। एक लोकतांत्रिक क्लब बनाने के लिए क्योंकि उस वक्त मर्दों के क्लब में महिलाओं को इजाज़त नहीं थी। महिला फ़ैकल्टी की क्लब का गठन होता है और उसके सौ साल बाद मैं उस हॉस्टल में प्रवेश करता हूँ।
सामने सौ साल का जश्न लिखा देख मोबाइल से इतिहास सर्च करने लगा। रिसेप्शन पर रखे सारे पेपर जेब में भरता हुआ कमरे में पहुँचा। जहां तक नज़र जा रही थी केवल महिलाएँ नज़र आ रही थीं। कोई अपने बच्चे के साथ आईं है तो किसी का पति बच्चे को सँभालने आया है। नाश्ते के मेज़ पर सब अपने अपने पेपर की बातें कर रही हैं। उनका ‘ पर्सोना’ उनकी शख़्सियत जेंडर की दीवारों के पार नज़र आने लगती है।
मैं उस दीवार के भीतर ख़ुद को देखने लगता हूँ। मुझे आज तक दिल्ली विश्व विद्यालय के पी जी विमेन्स हॉस्टल की ऊँची दीवारें और लोहे के गेट खटकते हैं। वहाँ की दीवार इसलिए ऊँची हैं कि भारत के समाज के पुरुषों का किरदार नीचा है। बर्कली के विमेन्स फ़ैकल्टी क्लब में कोई दीवार नहीं है। लोहे का गेट नहीं है। झाड़ियों के सहारे एक घेरा बना है जिसके चारों तरफ़ रास्ते खुले हैं।
इंस्टीट्यूट ऑफ़ साउथ एशिया की प्रोग्राम डायरेक्टर पुनीता काला ने यहाँ ठहरा कर मेरा भला कर दिया। वहाँ होना ही पहली बार होने के जैसा था। भीतर से हॉस्टल में बौद्धिकता झलक रही है। पुरुषों के क्लब की तरह यहाँ वैभव नहीं है मगर सौंदर्यबोध और आत्मीयता है।
बर्कली की महिला फ़ैकल्टी की लिखीं किताबें सज़ा कर रखी गईं हैं। कोई दरबान नहीं है।आपके हाथ में एक चाबी दी गई है। जब मन करे आइये जाइये। किसी को भी ले आइये। बग़ैर किसी पहरे से गुजरते हुए। यह कितनी बड़ी राहत है भारत में पिंजड़ा तोड़ आंदोलन चला रही लड़कियों से पूछ लीजिएगा।
डाइनिंग हॉल की दीवारों पर यूनिवर्सिटी में अपना जीवन गुज़ार कर इस दुनिया से जा चुकीं महिला फ़ैकल्टी की तस्वीरें हैं। बाहर पार्क में रखी गई बेंच किसी न किसी की याद में रखी गई है। हिस्ट्री की प्रोफ़ेसर जेन टेरेस मे की याद में एक बेंच उनकी बेटियों ने यहाँ रख दिया है। बेत्सी हाथवे 62 साल की उम्र में गुज़र गईं। उनकी याद में रखी गई बेंच पर लिखा कैलिफ़ोर्निया का संगीत उनके दिल में हमेशा रहेगा। औरतें दुनिया हमेशा सुंदर बनाती हैं। सबके लिए बनाती हैं।
महिला फ़ैकल्टी के इस हॉस्टल का एक दरवाज़ा एक पुरुष के नाम पर है। जिसके नाम से 19 वीं सदी में पब्लिक इंटेलेक्चुअल की शुरूआत होती है। फ़्रांस का द्रेफू। देफ़ू फेंक न्यूज़ और फेक प्रोपेगैंडै का शिकार हुआ होता है। अल्फ्रेड द्रेफ़ू एक यहूदी था। फ़्रांस की सेना में कप्तान था।
उस पर आरोप मढ़ा गया कि वह जर्मन को गुप्त जानकारी देता है। पहली बार फ़्रांस के इंटलेक्चुअल द्रेफ़ू के समर्थन में आगे आए और कहा कि सेनाध्यक्ष नेताओं से मिलकर द्रेफू को फँसा रहा है। उसे ग़लत आरोपों में क़ैद किया गया है। एमिल ज़ोला( Emile Zola) नाम के लेखक ने सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया तब उनके साथ कई लेखक, कलाकार और अकादमिक लोग सामने आए। जाँच हुई और द्रेफू को मुक्त किया गया।
यहीं से परंपरा क़ायम होती है कि जो अपने पेशे में मुक़ाम रखता है वह सत्ता से सवाल कर सकता है। इस द्रेफू के नाम पर बर्कली के विमेन्स फ़ैकल्टी हॉस्टल के डाइनिंग हॉल में एक दरवाज़ा है। उस वक्त फ़्रांस की सरकार गिर गई थी। coalition of republican solidarity बनी थी।
शुक्रिया पुनीता मुझे इस हॉस्टल के दरवाज़े तक पहुँचाने के लिए। यूनिवर्सिटी हमेशा ही कुछ देती है। भले वो आपकी न हो मगर वो कब आपकी हो जाती है पता नहीं चलता।