फ्लोर टेस्ट का मतलब ही है बाहुबल और धनबल का टेस्ट
नदीम अख्तर
आजकल सुप्रीम कोर्ट हर दफा इतिहास बनाने से चूक रहा है और एक अलग तरह का इतिहास गढ़ रहा है, जिसकी नज़ीर भावी पीढ़ियों के लिए अच्छी नहीं होगी।
मुझे किसी भी पॉलिटिकल पार्टी या विचारधारा से मतलब नहीं। मैं बस इस देश के संविधान के आईने में चीजों को देखता हूँ और उसका आंकलन करता हूँ। न्याय सब्जेक्टिव हो भी सकता है और नहीं भी। इसके बीच एक बारीक महीन रेखा होती है और हर प्रतिभावान जज को पता होता है कि वह रेखा क्या है?
जैसा मैंने कल दो दफा लिखा कि सिर्फ चिट्ठी-पत्री के लिए महाराष्ट्र में सरकार बनाने वाले मामले की सुनवाई आज सुबह तक टाल देना एक भारी चूक रही। अगर सुप्रीम कोर्ट 24 घण्टे के अंदर बहुमत साबित करने का आदेश दे देता तो कुछ तो संविधान की लाज बच जाती! विधायिका की अपनी अलग गरिमा है और न्यायपालिका का इसमें अनावश्यक हस्तक्षेप भी संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। दोनों के बीच एक बैलेंस की ज़रूरत है।
सो लब्बोलुबाब ये है कि मौजूदा सूरते हाल में सुप्रीम कोर्ट के सामने एक ही रास्ता बचता है कि वह जल्द से जल्द फ्लोर टेस्ट का आदेश दे। वह भी पारदर्शी तरीके से। कायदे से ये काम राज्यपाल और राष्ट्रपति के जिम्मे था, जिसे राजनीतिक पार्टियों की सत्ता लोलुपता ने हाई जैक कर लिया। यूँ कहें कि विधायिका ने खुद ही न्यायपालिका को अपने मामले में दखल देने की दावत दे दी। लोकतंत्र के लिए ये दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। सो सुप्रीम कोर्ट अपनी मर्यादा का ख्याल करते हुए फ्लोर टेस्ट से आगे नहीं जा सकता।
अब वही एक रास्ता है, जो न्यायपालिका और विधायिका, दोनों की इज़्ज़त बचाएगा। बाकी विधायकों की खरीद-फरोख्त तो होगी ही। कोई पक्ष हारना नहीं चाहेगा। फ्लोर टेस्ट का मतलब ही है बाहुबल और धनबल का टेस्ट। इसमें सुप्रीम कोर्ट भी कुछ नहीं कर सकता। बाकी जजों को मालूम सब होता है। वह भी हमारे समाज का ही हिस्सा हैं और खबर देखते-पढ़ते रहते हैं। बहरहाल महाराष्ट्र के ड्रामे ने हमारे लोकतंत्र की मजबूती को एक बार फिर तार-तार किया है। ये अच्छा नहीं हुआ।