यह तस्वीर नही है, इतिहास का हास्य है?
मनीष सिंह
एक दौर था, जब देश अंग्रेजो के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था। उसे देश का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहते हैं। पूरा उत्तर भारत जब अंग्रेजो को खोज खोजकर कत्ल कर रहा था, ग्वालियर गुट ने कम्पनी सत्ता का तम्बू उखड़ने से बचा लिया।
पर कम्पनी सत्ता फिर भी उखड़ गई। उसे हटाकर लंदन की रानी ने राज हाथ मे ले लिया। रानी ने स्थानीय राजाओ के राज तो सुरक्षित कर दिए मगर जनता से सीधा संवाद करने की ठानी। इंडियन नेशनल कांग्रेस इस कोशिश का नतीजा थी।
लोकल एनजीओ और इंफ्लूएसनर्स का संगठन, जो जनता की बात, राजाओ नवाबों को बाईपास करके उन तक पहुंचाए। इसके नतीजे में भारतीय बुद्धिजीवियों को सत्ता में थोड़ा थोड़ा हिस्सा भी मिलना शुरू हुआ। कांग्रेस का प्रभाव बढ़ने लगा। शुरूआत के 20 साल मे कांग्रेस में मराठी बुद्धिजीवी प्रभावी रहे थे। गोखले का युग था, रानाडे, तिलक चैलेंजर थे।
गदर में मुस्लिम्स आगे थे, सो उनको जरा दरकिनार रखा गया। तो ऐसे में मुस्लिम् नवाबों ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ अपना जनसंगठन बनाया। वह मुस्लिम लीग था। उसे मुस्लिम डोमिनेशन का पुराना युग वापस चाहिए था।
लेकिन गांधी युग मे कांग्रेस हिंदूवादी टच, और अनुनय विनय से हट गई। इसकी लीडरशिप देश भर में बंटी। वह धर्मनिरपेक्षता की बात करने लगी। वह लोकतंत्र के वैश्विक पैमानों पर देश का भविष्य चाहती थी।
कांग्रेस के बदले स्टैंड में कट्टर तत्वों को नया ठिकाना खोजने की जरूरत हुई। हिन्दू राजाओ को अपने हित की बात करने वाला एक संगठन चाहिए था। तो कट्टर वादियों की राजनीति और और हिन्दू राजाओ के आशीर्वाद से तीसरी धारा उपजी। हिन्दू महासभा बनी। इसे मराठा पेशवाई, वापस चाहिए थी। इसे दिल्ली पर सैफरॉन लहराना था।
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मांटैस्क्यू चेम्सफोर्ड सुधार, मार्ले मिंटो सुधार और 1935 के इंडिया गवर्नेंस एक्ट के साथ ये प्रेशर ग्रुप चुनावी दलों में तब्दील हो गए। जाहिर है मुस्लिम लीग का समर्थन औऱ फंडिंग नवाबो की रही। हिन्दू राजाओ की फंडिंग तथा समर्थन हिन्दू महासभा और इसके आनुषंगिक संगठनों को रहा।
आजादी के बाद बाकायदा चुनाव होने लगे। लीग अपना हिस्सा लेकर जा चुकी थी। बचे हिंदुस्तान में दो धाराएं सींग लडाती रही। मगर कांग्रेस के पास अपार जनसमर्थन था, और नेहरू थे। नेहरू ने तमाम राजाओ को भी चुनावो में किस्मत आजमाने का मौका दिया। ग्वालियर को भी आमंत्रण मिला। मगर जीवाजी राव अपनी पाली पोसी महासभा ( अब जनसंघ) को छोड़कर कांग्रेस में कैसे जाते। मगर नेहरू को ना भी करना कठिन था। सो बीवी को भेज दिया। वह कांग्रेस से सांसद हुई। मजे कि बात ये, कि उनके प्रभाव वाली बाकी सीटों पर जनसंघी ही जीतते रहे।
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मगर जनसंघ को जो भी सफलता मिली, वह राजस्थान और मध्यप्रदेश के उन इलाकों में सीमित रही, जहाँ पुराने राजा का असर था। 67 में जब कांग्रेस को लँगड़ी मारकर संविद सरकारें बनी, उसमे दो तत्व थे। राजाओ के पैसे से खरीदे हुए विधायक, या राजाओ के इलाके से जीते जनसंघ के विधायक। राजाओ ने अपने पैसे, और जनसंघ में बैठे अपने कारकुनों का इस्तेमाल खुलकर किया। इस वक्त दिल्ली की गद्दी पर इंदिरा आ चुकी थी।
तो इंदिरा ने एक मास्टर स्ट्रोक चलाया और रजवाड़े चारो खाने चित। प्रिवीपर्स बन्द कर दिया। भारत की संचित निधि से खर्चा पानी चलाने वाले, मिलने वाली निधि का उपयोग भारत की सरकार को हिलाने के लिए कर रहे थे। यह भला कैसे बर्दाश्त होता। जयपुर में छापे पड़े। कहते है अकूत सम्पत्ति उठवा ली गयी। रानी गायत्री देवी के यहां छापा हुआ, 1500 डॉलर विदेशी निधि रखने के "जुर्म" में जेल डाली गई। रजवाड़े टूट गए। बिखर गए।
आने वाले काल मे, उन्होंने फिर एक बार कोशिश की। इंदिरा के विरुद्ध असन्तोष को हरसंभव हवा और मदद दी। संघ सामने था, रजवाड़े पीछे। अलग अलग कारणों से और भी लोग जुड़े, देश मे माकूल माहौल बन गया। अराजकता के हालात थे। पर इमरजेंसी लगाकर इंदिरा ने फिर एक बार सबको मात दे दी। अब आप समझ गए होंगे कि इमरजेंसी में रानी-महारानी को जेल भरने का कारण क्या था।
रजवाड़ों को एकजुट करने और सत्ता बदलने की कोशिश के पीछे सबके पीछे सबसे बड़ी ताकत सिंधिया परिवार था। ग्वालियर घराने को एक और चोट दी गयी। जेल से बचने नेपाल गए राजकुमार को बुलाकर कांग्रेस जॉइन करवाई गई। पहले चुनाव में गुना से लड़े। पर जल्द ही ग्वालियर से उतारा गया-किसके खिलाफ?? जीवाजी राव सिंधिया की स्कॉलरशिप पर पढ़े और राजमाता सिंधिया के दरबारी माननीय अटल जी के खिलाफ..
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आगे का किस्सा आपमे से ज्यादातर लोगों को मालूम है। एक किलोमीटर की पोस्ट और डेढ़ सौ सालों तक फैला ये किस्सा शुरू हुआ था, इस तस्वीर से। जो इतिहास का हास्य है।
कभी देखा है किसी महाराज को, अपने बाप दादों के टुकड़ों पर जीने वालों को दण्डवत करते??? देखिये। सेवा करने की हूक जो न करवा दे। यह तस्वीर नही, इतिहास का हास्य है।