समाज को सच का आइना दिखाने का लेख, क्या स्त्री को आज हमने कोठे पर नहीं बिठा दिया है?
सौमित्र रॉय
कल सुबह लखनऊ यूनिवर्सिटी की एक छात्रा के साथ पुलिस की हिंसा की तस्वीर ने विचलित कर दिया। अचानक दिल्ली दंगों की तस्वीरें ताज़ा हो गईं। शाम तक लड़की के गेट अप, उसके प्रतिरोध न करने और "व्यवस्था" के साथ सेटिंग की बातें भी सामने आईं। मैं चुपचाप समाज का चरित्र देख रहा था। यह भी कि ऐसी घटनाएं सामने आने के बाद लोग किस तरह प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हैं?
मीडिया किस तरह रिपोर्ट करती है? किन शब्दों का इस्तेमाल होता है? एंगल क्या दिया जाता है? कुछ सवाल जेहन में आए। इन्हें साझा करना ज़रूरी है, ताकि अगली बार ग़लती न हो। एक बार फिर। क्या स्त्री का गेटअप उसे हिंसा का शिकार बनाएगा? एक पुरुष पुलिस महिला को कैसे दबोच रहा है?
क्या आप भी यह भूल गए कि पुलिस नियमावली क्या कहती है? सोशल मीडिया पर पीड़ित की तस्वीर को सभी ने खूब शेयर किया। गोया बिना तस्वीर के घटना प्रामाणिक ही न मानी जाए। आगे इससे भी वीभत्स तस्वीर भी लगाएंगे क्या? कोई सीमा है?
शाम तक पीड़ित को ही गुनाहगार बना दिया गया, क्योंकि उसने इस घटना को कंफ्यूजन बता दिया? हमने यह भी नहीं देखा कि पीड़ित पर परिवार, समाज और आरोपी व्यवस्था का किस कदर दबाव रहा होगा? लखनऊ पुलिस कमिश्नर ने खेद जताया है। मामला खत्म।
आपने पिछले साल आई स्टेटस ऑफ पोलिसिंग रिपोर्ट भी नहीं पढ़ी होगी। देश में महिला पुलिस कर्मी सिर्फ 7% हैं। उनमें भी 90% कांस्टेबल। इस घटना और इस पर आप सभी की पोस्ट ने क्या संदेश दिया? पुलिस एक बार फिर यह दिखाने में कामयाब रही कि आगे कोई महिला "पुरुष गेटअप" में विरोध प्रदर्शन करे तो उसे इससे भी बुरी तरह दबोचा जा सकता है! यानी महिला चुपचाप विरोध, दमन सहती रहे।
भारत में रोज़ 90 से अधिक रेप यूँ ही नहीं होते। ये 2017 का आंकड़ा है, क्योंकि मोदी सरकार नहीं चाहती कि भारत रेपिस्टों का देश कहलाए। क्या निर्भया कांड के बाद किसी ने निवारक तंत्र की बात की? सूली, फांसी, वंध्याकरण के सिवा कुछ शब्द हैं आपके पास?
क्यों एक महिला के हाथ में वह सक्षम निवारक तंत्र अभी तक नहीं है, जो उसकी एक पुकार पर उसे न्याय दिलाए? अदालतों में पड़े रेप के 1.27 लाख मामलों में सिर्फ 18300 में ही सज़ा हो सकी है।
अब तो सरकारें भी खाप पंचायतों के समान मुआवज़े पर उतर आई हैं। कल एक मित्र ने बताया कि लखनऊ की पीड़ित छात्रा के साथ भी यही हुआ। पैसा, कपड़े वगैरह। क्या वाकई? फिर तो देश की हर लड़की को जन्म लेते ही खुद को परिवार, समाज, नगर की वधु मान लेना चाहिए।
उसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि सड़क चलते कोई रसूख वाला उसके सामने हस्त मैथुन करेगा, खाकी उसे पीछे से दबोच लेगी, रेप भी हो सकता है। सत्ता चाहे पैसे की हो या हाथ में बोतल की, कुछ भी करवा सकती है।
फिर क्या होगा? चुप रहने के लिए नौकरी, पैसा, मुआवज़ा सब मिलेगा। "दामिनी" फ़िल्म में भी यही आफर था, क्योंकि आरोपी रसूखदार थे, निर्भया की तरह निचले तबके से नहीं।
मतलब, यूपी ही नहीं देशभर में हर स्त्री को यह सच स्वीकार कर लेना चाहिए। उसे मालूम होना चाहिए कि उसके साथ घटना होगी, कोई उसका वीडियो बनाएगा और फिर 24 घंटे में उसे ही आरोपी बता दिया जाएगा। पॉक्सो समेत सारे कानून धरे रह जाएंगे।
सोशल मीडिया और बिकी हुई मीडिया पहले तो भावनाओं के रथ पर सवार होगी। फिर पोस्टमॉर्टम होगा और शाम तक उसे आरोपी ठहराया जाएगा। 25-30 साल का तजुर्बा रखने वाले पत्रकार सब एडिटर की तरह टिप्पणियां करेंगे।
यह भी सोचिये कि अगर हर स्त्री इस सच को स्वीकार कर ले तो विवाह जैसी समाज की संस्थाओं का क्या महत्व रह जाएगा? क्या स्त्री को आज हमने कोठे पर नहीं बिठा दिया है?
वैसे आपको बता दूं कि कोठे और वेश्यालय के भी अपने नियम-कायदे होते हैं। हमारे समाज और व्यवस्था में सारे नियम-कायदे टूट रहे हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि जघन्य अपराधों के आरोपी खुद सत्ता के शीर्ष पर काबिज़ हैं। क्या आप इस पर बात कर रहे हैं?
कल सुप्रीम कोर्ट ने सारे हाईकोर्ट से कहा है कि माननीयों पर आपराधिक मुकदमे की सुनवाई के लिए विशेष बेंच बनाएं। राजनीति और अपराध के ताने-बाने पर कोई बात नहीं करता।
दरअसल, हम सत्ता के उस केक के छोटे-बड़े हर टुकड़े के मोहताज़ हैं, जिसे छीनने की शिक्षा आप अपने बच्चों को देते हैं। शिक्षा, नौकरी, दलाली, हराम की कमाई और शोहरत- यही विकास है और इसके लिए सब जायज़ है।
इस देश को इलाज की जरूरत है। दवा चाहिए। सलाह, आंसू नहीं। घर से लेकर बाहर तक, सभी ओर घोर अराजकता है। मनमानी है। फिर भी दर्द की दवा को लेकर कोई बात नहीं कर रहा है।
बीमारियां कैंसर बन चुकी हैं और इसे हम पाल रहे हैं। फिर भी मैं निराश नहीं हूँ। कम से कम इलाज की शुरुआत अपने घर से ही कीजिए। लेकिन पहले अपना इलाज कीजिए।