ध्रुव गुप्त
आज पुत्री दिवस है। मुझे एक ज़माने तक यह अफसोस रहा कि मेरी कोई पुत्री नहीं हुई। फिर आई एक पौत्री और पलक झपकते जीवन भर का अभाव भर गया। कहने भर को यह पौत्री है, मगर है सारे घर की अम्मा। जितनी हिदायतें मां-बाप और गुरुजनों से नहीं मिलीं, उससे ज्यादा इस उम्र में झेल रहा हूं।
क्या मज़ाल कि उसकी मर्ज़ी के बगैर एक पत्ता भी खड़क जाय घर में! सुना तो बहुत था कि बेटियां घर की रौनक होती हैं, लेकिन इसके आने के बाद जाना कि बेटियों के बगैर घर वस्तुतः घर होता ही नहीं। देश-दुनिया की सभी बेटियों को बहुत प्यार और शुभकामनाएं, अपनी कविता की इन पंक्तियों के साथ :
हमारी बेटियां गढ़ रही हैं अपने लिए
अपने जैसा कोई घर
अपने जैसी कोई सड़क
अपने जैसा कोई गांव-शहर
अपने जैसा कोई संसार
कोई मत रोको उन्हें
वे जाने कब से इंतजार कर रही हैं
हवा और आकाश हो जाने का !
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