देश का युवा नौकरी के लिए तड़प रहा है, लेकिन सत्ता में बैठे लोग इन युवाओं को रोजगार नहीं देते
कृष्णकांत
'सच बताओ, दर्द होता है कि नहीं?' ये शब्द मेरे कानों में पड़े और आंखें मोबाइल से हटकर उस युवक पर पड़ीं। वह मेरी बगल में बैठा था। उसका एक हाथ उसके सीने पर बाईं तरफ था। सामने की सीट पर दो लड़के बैठे थे। वह उनमें से एक से पूछ रहा था। दूसरे ने दर्द की तस्दीक करते हुए कहा, 'दर्द होता भी होगा तो ये बताएगा नहीं? ये तो हरदम मुस्कराता रहता है।'
मेरी दिलचस्पी बढ़ी। मुझे लगा कि युवा हैं, प्यार, मोहब्बत, ब्रेकअप, दर्द वगैरह के बारे में मसखरी कर रहे हैं। मैंने कान उटेर कर उनकी बातें सुननी शुरू कर दीं। मैं गलत था। वे तीनों जिस दर्द की बात कर रहे थे, वह कोई दिल का दर्द नहीं था। उनकी बातों से मुझे तमाम बातें पता चल रही थीं। मैंने उनसे कुछ न पूछने और सिर्फ उन्हें सुनने का फैसला किया।
उन्हें जो दर्द परेशान कर रहा था, वह बेरोजगारी का दर्द था। वह परिवार की तंगी का दर्द था। वह जल्दी कुछ करने के दबाव का दर्द था। वह उम्र बीतते जाने का दर्द था। वह आगे बढ़कर परिवार को सहारा न दे पाने की बेबसी का दर्द था।
हमारे किसी गांव से एक युवक बाहर पढ़ने जाता है तो अकेला नहीं जाता। उसके साथ उसके परिवार की तमाम उम्मीदें जाती हैं। वे उम्मीदें उसका पीछा करती हैं। खेत बेचकर घर से आ रहे पैसे, बाप की तंगी, मां की जरूरतें, भाई बहन या परिवार के सपने, सब उसका पीछा करते हैं। ये सबके लिए एक जैसा नहीं होता। जो लड़का यह पूछ रहा था, मेरे अंदाजे से वह लगातार किसी पीड़ा से गुजर रहा था।
वे तीनों बेतरतीब ढंग से बीएड, यूपीटेट, पेपर लीक, घोटाले, एक भी परीक्षा बिना घोटाले के पूरी न हो पाने, भर्तियां न आने, सीटें खाली होने, सरकार जाने, अगली भर्ती आने के बारे में बातें कर रहे थे। इससे पता चल रहा था कि उनके दिमाग ज्यादा देर तक कहीं और ठहर नहीं रहे थे। घूम फिर कर वे फिर उन्हीं बातों पर लौट आते थे। भर्ती, परीक्षा और नौकरी की बातें उनके दिमाग पर चढ़ गई हैं।
जो युवक मेरी बगल में बैठा था, वह अपने सामने वाले से हर थोड़ी देर बात पूछ लेता था, 'सच बताओ, दर्द होता है कि नहीं? होता है न?' हर बार यह सवाल पूछने पर सामने बैठा युवक एक बेहद उदास और फीकी सी हंसी हंस देता।
सामने वाला लड़का घर का अकेला है। उसके कंधे पर परिवार, समाज, नकारा सरकार और अपनी जिंदगी का बोझ है। वे तीनों कई साल से तैयारी कर रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी चिंता थी कि साल दर साल बीत रहे हैं और ढंग से नई भर्तियां ही नहीं आतीं, वरना सेलेक्शन हो जाता।
वे तीनों प्रतियोगी छात्र थे। वे रोजगार मांगने राजधानी लखनऊ गए थे। लखनऊ में आजकल रोजगार मांगने वालों का लाठियों से स्वागत होता है। गनीमत है कि वे पुलिस की लाठियों से बच गए थे। वे प्रदर्शन करके वापस इलाहाबाद लौट रहे थे। वही इलाहाबाद, जो कभी आईएएस की फैक्ट्री था। जहां से आज भी सबसे ज्यादा पीसीएस बनते हैं। वही इलाहाबाद जो अब प्रयागराज हो गया है, वही प्रयागराज जहां अब प्रतियोगी छात्र आत्महत्याएं करते हैं।
मैंने वह इलाहाबाद देखा है जहां पर हर चाय की दुकान पर सरकार बनती बिगड़ती थी, जहां रूस और अमेरिका की चर्चाएं हुआ करती थीं। आज उस इलाहाबाद का युवा दूसरे युवा से पूछ रहा है, 'सच बताओ, दर्द होता है कि नहीं?'
पांच घंटे के सफर में मेरी बगल बैठे लड़के ने कम से कम 50 बार यह दोहराया होगा कि 'सच बताओ, दर्द होता है कि नहीं?' दरअसल, दर्द खुद उसे था। वह सामने वाले से तस्दीक करना चाहता था कि क्या उसे भी दर्द होता है? इस तरह वह अपना दर्द कम करना चाह रहा था।
उनकी बातें सुनकर मुझे बेहद दुख हुआ। मुझे लगा कि मैं भी कितना बेबस हूं। हम सब कितने बेबस हैं? इन युवाओं के लिए जो लोग कुछ कर सकते हैं, वे सिर्फ हमारे पैसों पर रैलियां करते हैं और झूठ बोलते हैं।
यह सफर कल रात का था। 24 घंटे से ज्यादा गुजर गए हैं। आज दिन भर उसके वे शब्द मेरे कानों में गूंजते रहे। जब मैं ट्रेन से उतर रहा था तो गेट के बगल में ये पोस्टर लगा था। इसे देखकर मैंने सोचा कि देश का युवा नौकरी के लिए तड़प रहा है, लेकिन सत्ता में बैठे लोग इन युवाओं को रोजगार नहीं देते। वे धर्म संसद लगाकर देश को हिंसा और तबाही में झोंकने का आह्वान कर रहे हैं।
आप मेरा यकीन कीजिए। हम वाकई एक भयंकर तबाही की ओर बढ़ रहे हैं। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तबाही, जिसकी भरपाई आने वाली पीढ़ियों को करनी होगी।