प्रधानमंत्री के विरोध में सड़क जाम करना जान का ख़तरा कब से हो गया?
दिलीप खान
दो दिन पहले ख़बर थी कि प्रधानमंत्री के पंजाब दौरे से पहले 10 हज़ार सुरक्षाबल फ़िरोज़पुर में तैनात किए गए हैं. ये सारी व्यवस्था NSG, आर्मी और BSF की निगरानी में पंजाब पुलिस देख रही थी. एंटी-ड्रोन दस्ते तैनात किए गए थे.
प्रधानमंत्री का जहां दौरा होता है, वहां मॉक ड्रिल होती है. एक हफ़्ते से केंद्रीय एजेंसियों की टीम वहां खटती रहती है. ख़ुफ़िया विभाग सक्रिय रहता है. प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द SPG के जवान कोट-टाई और काला चश्मा लगाए जेम्स बॉन्ड की तरह चौकस रहते हैं. ये सबकुछ अनिवार्यत: हर दौरे में होता है.
“जान का ख़तरा” एक बड़ा लफ़्ज़ है जिनसे मौजूदा प्रधानमंत्री को दूर-दूर से कभी दो-चार नहीं होना पड़ा. वजह सिंपल है. ये घेरे में रहते हैं. अंदर-अंदर अहंकार के घेरे में और बाहर बंदूक़धारियों के. अहंकार को ठेस पहुंचते ही इनका अंदरूनी घेरा टूट जाता है और इन्हें लगने लगता है कि इनकी जान को ख़तरा है.
अहंकार में ही इनकी जान बसती है. बिल्कुल तिलिस्मी तोतों की माफ़िक, जिनकी जान जगह-जगह बसा करती थी.
जाम लगना जान का ख़तरा नहीं होता. फ़्लाईओवर पर 10 मिनट फंसना जान का ख़तरा नहीं होता. भटिंडा से फ़िरोज़पुर के लिए पूले दल-बद के साथ साहेब आख़िरी पल में सड़क से रवाना हुए. पहले तो हेलीकॉप्टर से जाना था.
सबसे ज़रूरी बात, प्रधानमंत्री के विरोध में सड़क जाम करना जान का ख़तरा कब से हो गया? राजनीतिक प्रदर्शनकारियों का जमावड़ा जान का ख़तरा कैसे हो गया.
जान का ख़तरा इन्हें हो सकता था, अगर वादे के मुताबिक़ नोटबंदी के 50 दिन बाद ये चौराहे पर आते. लेकिन मुकर गए!