योगी के नही PM मोदी के चेहरे पर ही यूपी में चुनाव लड़ेगी BJP
रवि पाराशर
क्या उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही जादू दोबारा चलेगा? क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ सिर्फ़ अपनी छवि के दम पर यूपी में बीजेपी की नैय्या फिर से पार लगा पाएंगे? क्या योगी सरकार पर वंचितों को हक़ नहीं दिए जाने के आरोप थोप कर बीजेपी छोड़ने वाले नेता यूपी में बीजेपी के विजय अभियान के निर्णायक खलनायक बन पाएंगे? क्या योगी सरकार के चंद मंत्रियों-विधायकों से इस्तीफ़े और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ उनकी नज़दीकी का यह अर्थ लगाया जा सकता है कि असंतुष्टों ने हवा का रुख़ भांप कर ही बीजेपी छोड़ी है? आज इन सभी सवालों की पड़ताल करेंगे.
पांच राज्यों में चुनावी घमासान जारी है. असंतुष्ट नेताओं के दल-बदल का सिलसिला चल रहा है. कुछ मंत्रियों और कुछ विधायकों के इस्तीफ़े के बाद उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को बड़ा झटका लगने की बात कही जा रही है, हालांकि बीजेपी प्रवक्ता इसे आम बात करार दे रहे हैं. उनकी दलील है कि क्योंकि पार्टी विधायकों की संख्या के मुक़ाबले छोड़ कर जाने वालों का प्रतिशत निकाला जाए, तो वह बहुत कम बैठता है और इतने बड़े कुनबे में कुछ बर्तन तो खटखटाएंगे ही, सबको एक समान स्तर तक संतुष्ट नहीं किया जा सकता.
बीजेपी की बात करें, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में पार्टी के पास जीत का परचम दोबारा लहरा सकने वाला बड़ा ब्रांड है. योगी तो हैं ही, लेकिन बड़ा मसला मोदी के होने का है. वे यूपी से ही लोकसभा सदस्य हैं और पूर्वांचल समेत पूरे उत्तर प्रदेश को विकास की नई चमक में केंद्रीय फंड की ख़ासी भूमिका रही है, यह बात सभी जानते हैं. यह भी सही है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ की अपनी मज़बूत छवि है. वे 80 बनाम 20 प्रतिशत के बीच चुनाव की बात खुलेआम कह रहे हैं. लेकिन योगी को ही जीत दोहराने का मुख्य हथियार करार दे रहे लोगों को यह भूलना नहीं चाहिए कि वर्ष 2017 का विधानसभा चुनाव मोदी के चेहरे पर ही लड़ा गया था.
वर्ष 2017 में योगी यूपी में स्टार प्रचारक ज़रूर थे, लेकिन कोई नहीं जानता था कि उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया जाएगा. पूरा चुनाव मोदी को आगे रख कर ही लड़ा गया. विकास के उनके सोचे गए सभी काम पूरे करने का आरोप योगी सरकार पर लगातार लगाने वाले अखिलेश यादव को योगी ने नहीं, मोदी ने ही हराने का कारनामा 2017 में किया था.
दूसरी बात यह है कि बीजेपी कितना भी दावा करे कि यूपी के लोग योगी सरकार से खिन्न नहीं हैं यानी एंटी इंकमबेंसी फ़ैक्टर इस बार नहीं है, यह बात सौ आने सच नहीं हो सकती. सरकार किसी भी पार्टी की हो, पांच साल के शासन काल के बाद बहुत से लोग उससे निराश होते हैं. पार्टी नेतृत्व मान कर चल रहा है कि एंटी इंकमबेंसी से होने वाले नुकसान की भरपाई बीजेपी के ब्रांड मोदी से हो जाएगी. मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ का जादू अपनी जगह पर है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूपी में सक्रियता ने ऐसा माहौल तो बना ही दिया है कि इस बार भी बीजेपी समर्थक वोटर मशीन का बटन दबाते समय उनके चेहरे का ही ध्यान करेगा.
उत्तर प्रदेश को लेकर राजनैतिक गलियारों में यह दलील भी अलग-अलग तर्कों के साथ दी जा रही है कि इस बार यूपी में मुख्य मुक़ाबला बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच ही होगा. बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती और दूसरे कद्दावर पार्टी नेता बार-बार दोहरा रहे हैं कि सरकार बनाने की दौड़ में वे भी शामिल हैं. हालांकि विभिन्न मंचों पर किए गए चुनावी सर्वे अभी जो तस्वीर पेश कर रहे हैं, उसमें बीएसपी और कांग्रेस कहीं नहीं हैं.
ज़्यादातर सर्वे बीजेपी और सहयोगियों की सरकार दोबारा बनने का ही संकेत दे रहे हैं. समाजवादी पार्टी का जलवा क़ायम रहने के संकेत तो हैं, लेकिन अखिलेश यादव दोबारा मुख्यमंत्री बनेंगे, इस बात की पुख़्ता तस्दीक़ किसी सर्वे में नहीं की गई है. सीएम का ताज फिर से योगी आदित्य नाथ के सिर सजने की संभावना सबसे अधिक जताई गई है.
कुछ लोग कह रहे हैं कि स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह समेत कुछ विधायकों के पार्टी छोड़ने से बीजेपी का जनाधार खिसकेगा. उनका तर्क है कि स्वामी प्रसाद मौर्य की पकड़ अपने वोट बैंक पर वैसी ही बनी हुई है, जैसी पहले हुआ करती थी. अगर ऐसा होता, तो 2024 की राह मज़बूत करने के इरादे से यूपी चुनाव की रणनीति बना रही बीजेपी उन्हें पार्टी छोड़ कर जाने देती? हरगिज़ नहीं. ज़ाहिर है कि मौर्य ने अचानक पार्टी छोड़ने का फ़ैसला नहीं किया होगा. अंदरख़ाने बीजेपी को उनके पार्टी छोड़ सकने का अंदाज़ा रहा ही होगा.
बीजेपी के अंदर से और मौजूदा घटनाक्रम को भांपने वाले लोग काफ़ी समय से कह रहे हैं कि इस बार 40 से 50 ऐसे मंत्रियों, विधायकों के टिकट काटे जाएंगे, जिन्होंने काम पर ध्यान नहीं दिया और जनता से कटे रहे. दो साल बाद बीजेपी को आम चुनाव में जाना है और सभी जानते हैं कि पीएम की कुर्सी तक पहुंचने की मुख्य राह यूपी ही है, इसलिए पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेगी.
ऐसे में स्वामी प्रसाद और दारा सिंह को यह आभास हुआ हो कि उन्हें टिकट नहीं मिलेगा, तो मलाई पाते रहने के उनके सफ़र पर कम से कम पांच साल के लिए विराम लग जाएगा, तो किसी को कोई अचरज नहीं होना चाहिए. यही कारण रहा कि उन्होंने बीजेपी छोड़ने का फ़ैसला किया. समाजवादी पार्टी में जाकर कम से कम उन्हें टिकट तो मिल ही जाएगा. विधायक बन गए, तो चुनाव के बाद भी समीकरण देखते हुए इधर से उधर हुआ जा सकता है. आशय यह हुआ कि स्वामी प्रसाद और दारा सिंह ने समाजवादी पार्टी की जीत की अधिक संभावना की वजह से बीजेपी से किनारा नहीं किया, बल्कि अपने राजनैतिक भविष्य के दांव पर लग सकने की आशंका के मद्देनज़र ऐसा किया.
इसमें शक नहीं कि मायावती के शासन काल में स्वामी प्रसाद मौर्य का राजनैतिक क़द बड़ा था. लेकिन बीजेपी में उनकी राजनैतिक हैसियत वैसी नहीं रही. अखिलेश यादव ने उनका स्वागत गर्मजोशी से तो किया है, लेकिन देखना होगा कि समाजवादी पार्टी में मौर्य का हस्तक्षेप कितना प्रभावी रह पाता है. अपने सगे चाचा को हाशिये पर ले आने वाले अखिलेश मौर्य के राजनैतिक रसूख को कितना पचा पाते हैं, इसका अंदाज़ा उम्मीदवारों के चयन से ही लग जाएगा, जिसकी प्रक्रिया चल रही है.
कुल मिला कर बीजेपी छोड़ने वाले नेताओं के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई मोदी फ़ैक्टर से हो सकती है. योगी सरकार से अपेक्षाएं रखने वाले और उन्हें पूरी नहीं होते देखने वाले असंतुष्टों की नाराज़गी पर भी मोदी मरहम सकारात्मक काम कर सकता है. भारतीय जनता पार्टी को यह पता है, फिर भी कुछ नेताओं के पार्टी छोड़ जाने जैसी घटनाएं न हों, उसे इसका ध्यान रखना ही चाहिए.