महंगाई 3 तरह की होती है, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक महंगाई
सौमित्र रॉय
आज मोदीराज में तीनों तरह की महंगाई है। आम लोगों के ज़रूरत की चीजें अंतरराष्ट्रीय कारणों और राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी के कारण बढ़ी हैं।
जमाखोरी, कालाबाज़ारी के कारण भी महंगाई है, जो सामाजिक कारण है। और बाकी व्यापार असंतुलन, विदेशी निवेशकों के पैसा निकालने और रुपये की गिरती कीमत आर्थिक कारण हैं। इनके बीच सरकार क्या कर रही है? वह महंगाई रोकने के बजाय बाजार को ताक रही है। गेहूं के निर्यात पर रोक एक अच्छा उदाहरण है।
दो साल पहले ही प्रधानमंत्री फेंक रहे थे कि किसान सीधे अपना उत्पाद विदेशों में बेचें। जून में रिज़र्व बैंक ब्याज़ दरों में 100 बेसिस पॉइंट का इज़ाफ़ा कर सकता है, लेकिन उससे पहले ही आज वित्त मंत्री ने पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज घटाकर दांव खेल दिया।
ऐसा इसलिए भी, क्योंकि अडाणी ने 2.2 लाख करोड़ का लोन उठाया हुआ है। अगर ब्याज़ दरें बढ़ीं तो उनका मुंह सूज जाएगा। अडाणी ने हाल में दुनिया की सबसे बड़ी सीमेंट फैक्ट्री खरीदी तो आज वित्त मंत्री ने सीमेंट की कीमतें कम करने का ऐलान किया।
ये सारे आधे-अधूरे बेमन से किये जा रहे उपाय हैं, जबकि बाजार में मांग बढ़ाने, लगातार बंद हो रहीं छोटी-मझोली इकाईयों को संभालने और बैंक NPA को कम करने के कोई जतन नहीं हो रहे।
होना यह चाहिए कि वित्त मंत्री 6 महीने के लिए इंदिरा गांधी बन जाएं और तीनों तरह की महंगाई रोकने के सख़्त कदम उठाएं। लेकिन, उनके बॉस शायद ही उन्हें ऐसा करने दें।
वित्त मंत्री ये सारे फैसले शायद ही खुद ले रही हैं। प्रधानमंत्री का मशहूर बादलों के पीछे राडार वाला रॉ विज़न इसके लिए ज़िम्मेदार है। साफ़ है, मोदीजी की सरकार का ध्यान राजनीतिक महंगाई कम करने की तरफ है, न कि आर्थिक महंगाई कम करने पर।
सोमवार को अगर क्रूड के दाम 115$ से और बढ़े तो 60 दिन में पेट्रोल-डीजल के दाम 10₹ बढ़ाकर 9.5₹ घटाने का जश्न फ़ीका पड़ सकता है। फिर भक्त जन, अमेरिका, ब्रिटेन की महंगाई दिखाएंगे? बीते 8 साल में मोदी सरकार ने अनगिनत मौके गंवाए हैं, क्योंकि देश चलाने और इतिहास खोदने में ज़मीन-आसमान का अंतर है।