लेकिन कोई नहीं पूछता कि उन्हें भरपेट खाना खाए कितने दिन बीत गए
सौमित्र रॉय
भीषण भुखमरी के शिकार शिवपुरी जिले में रहले वाले सहरिया आदिवासियों की भूख अब कम हो गई है। मध्यप्रदेश के सरकारी बाबू और आदिवासियों की भूख मिटाने में नाकाम एनजीओ इसी चमत्कार को देखने पहुंच रहे हैं।
दिहाड़ी का काम करने वाले पातालगढ़ गांव के सैंदू कहते हैं, सुबह और शाम को शानदार गाड़ियों का रेला लगा रहता है। लोग नाम पूछते हैं। बच्चों का पेट दबाते हैं। शरीर की सूजन देखते हैं, कुछ लिखते हैं और एयरकंडीशंड गाड़ी में बैठकर चल देते हैं। लेकिन कोई नहीं पूछता कि उन्हें भरपेट खाना खाए कितने दिन बीत गए। कोई भूखे पेट को दाल-सब्जी लाकर नहीं देता।
मड़खेड़ा गांव के महरू आदिवासी 10 दिन पहले पूरे परिवार के साथ एक शादी समारोह में गए थे। उन्हें याद है कि उसी दिन उनके परिवार ने भरपेट खाना खाया था। उससे पहले इसी तरह के ‘अच्छे दिन’ उन्हें याद नहीं। महरू हंसते हुए चीथड़े हो चुकी कमीज को ऊपर कर कहते हैं- ‘पेट सिकुड़ चुका है। खाने को कुछ नहीं है। दो लोटा पानी से भी पेट भर जाता है।’
मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह सरकार ने 2017 में वोट बटोरने के लिए प्रत्येक आदिवासी परिवार को फल-सब्जियों, दूध खरीदने के लिए 1000 रुपए की मदद की योजना चलाई थीं। लेकिन जैसा कि अमूमन होता है, सत्ता हथियाने के बाद खैरात बंद कर दी जाती है। सहरिया परिवारों के साथ भी यही हुआ और कोविड के बाद इमदाद भी बंद हो गई। अब कुछ बचा है तो वह है अंत्योदय परिवार के लिए मिलने वाला 35 किलो अनाज, जिसकी सूखी रोटी आसानी से गले में नहीं उतरती।
शिवराज सरकार को सस्ती शराब की तरह जहर भी आसानी से उपलब्ध करा देना चाहिए, ताकि उसे खाकर सहरिया आदिवासी भुखमरी से हमेशा के लिए आजाद हो जाएं। शिवपुरी भुखमरी से जीत रहा है। सरकारी बाबुओं और एनजीओ के दौरे शायद यह देखने के लिए हैं कि आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त सहरिया आदिवासी भुखमरी से कब आजाद होंगे।