भारत में हर गली-चौराहे पर मूर्ख, लंपट टाइप के लोग मिल जाएंगे
सौमित्र रॉय
मूर्खता हमारे जीवन में इस कदर घुल-मिल चुकी है कि घर से लेकर दफ़्तर और अब राजनीति में भी हमें राज करने वाला मूर्ख ही चाहिए, ताकि मौज रहे। मिल गया देश को। लेकिन गृह मंत्री अमित शाह अपने बॉस को बहुत ही काबिल मानते हैं।
मोदी@20 ड्रीम्स मेट डिलीवरी- इस किताब में शाह के मोदी के साथ यात्रा के संस्मरण हैं। वे कहते हैं- "नरेंद्र भाई बताते थे कि हर गांव में पंचायत चुनाव के लिए दो पार्टियों- कांग्रेस और जनता दल (80-90 के गुजरात की बात है) के उम्मीदवार होते हैं। जो जीता, उसे बीजेपी में शामिल कर लो। उससे गांव में बीजेपी की पैठ बढ़ेगी।"
मोदी अपनी पार्टी की सियासी ज़मीन मज़बूत करना बखूबी जानते हैं। लेकिन सीएम/पीएम बनकर सरकार चलाना उन्हें नहीं आता। आज गेहूं निर्यात पर पाबंदी उनकी और उनकी सरकार चलाने वाले बाबुओं की नाकामयाबी की दास्तान कहती है। फिर भी मूर्ख अवाम की उन पर नज़रें हैं कि हटती ही नहीं।
मोदी तकरीबन हर भाषण में कांग्रेस को गरियाते हैं। आज उसी कांग्रेस से निकले डॉ. मानिक साहा को त्रिपुरा की कमान सौंप दी। उधर "खटिया" पर बैठी चिंतन कर रही कांग्रेस को सुनील जाखड़ ने आज ही औकात बता दी। मोदी ने सीएम बनने से पहले कभी सरपंची का चुनाव नहीं लड़ा, पर पार्टी संगठन को मज़बूत बनाने की हर बारीकी सीखी।
बस, नहीं सीख पाए तो जवाबदेह बनना। कॉर्पोरेट का साथ मोदी का विकास बनता गया। इतना कि अब देश के गांव में 10 में से 8 लोग नून-रोटी चबा रहे हैं। मोदी अगर 21 घंटे काम करते तो राजीव गांधी की तरह कुछ तो सीखते। मीडिया से कभी तो बोलते। अपनी जग-हंसाई नहीं करवाते। फेंकने से पहले उन्हें पता होता कि पंजाब-हरियाणा में गेहूं की 25% फसल ख़राब हो चुकी है।
उनकी और उनके काबीना की इसी कमज़ोरी का बाबू फ़ायदा उठा रहे हैं। मोदी की महत्वाकांक्षा उन्हें कुर्सी से चिपकाए है और कहीं न कहीं सत्ता खोने का डर भी। उनसे इकॉनमी नहीं संभली। कश्मीर, चीन नहीं संभला। कोविड भी नहीं। और न ही देश की बाकी समस्याएं।
कुछ है तो बस प्रचार और बीजेपी के ट्रोल कुलियों की सेना के झूठ पर भरोसा। और पेट में आलू भरे खाते-पीते घर के लोग, सफेद दाढ़ी वाले वाट्सअप ठेलते बुज़ुर्ग और ऑर्गेज़्म का मज़ा लेती प्रौढ़ पीढ़ी। बाकी तो डीजे पर डांस कर ही रहे हैं। मेरा पूरा विश्वास है कि देश को बंदरों की पसंद का मदारी मिला है।