ग़ुलामी के भाव से हीन भावना पैदा होती है जो नफरत में तब्दील होती जाती है
Zaigham Murtaza
नफरत की बुनियाद उसी वक़्त पुख़्ता हो जाती है जब बहुसंख्यक वर्ग को बताया जाता है कि तुम हज़ारों वर्ष ग़ुलाम रहे हो। ग़ुलामी के भाव से हीन भावना पैदा होती है जो नफरत में तब्दील होती जाती है। नफरत का यह भाव पैदा कौन करता है? अगड़ा वर्ग जो हर काल में सत्ता में बराबर का भागीदार रहा है।
ज़रा बताइए, कौन सा सुल्तान, कौन सा शहंशाह, या कौन सा नवाब ऐसा है जिसका शासन बामन, ठाकुर और बनियों ने मज़बूत न किया हो? 800 वर्ष के कथित मुस्लिम शासन में मुसलमान मध्यम वर्ग का विकास तक नहीं हुआ। मुसलमान इस पूरे काल में प्रशासक रहे, नाम के मनसबदार बने, सैनिक रहे या फिर पेशेवर और कारीगर।
कारोबार लालाओं और बनियों के पास यथावत बना रहा, उच्च पदों पर बामन बदस्तूर बने रहे। ज़मींदारी, मनसबदारी, मालगुज़ारी, लगान वसूली ठाकुरों के पास रही। इनके बिना कौन सा मुग़ल, कौन सा सैयद, कौन सा तुर्क, या कौन सा ईरानी, तुरानी शासन कर लेता? ये अगर ग़ुलाम होते तो आज भी इतनी शान से रह पाते? अपनी मर्ज़ी से फैसले लेते रहे, मर्ज़ी से युद्ध लड़े और जिसे चाहा लपेट लिया। फिर ये हज़ारों वर्ष का ग़ुलाम कौन है?
ग़ुलामी का भाव कमेरा वर्ग के लिए है या दलितों के लिए? सच पूछिए तो उनका हाल तो आज भी वही है। आज़ादी से पहले इनके हालात शायद अबसे बेहतर ही रहे होंगे। फिर भी ग़ुलामी शब्द इनके ही दिल को हिट करता है। हिंदुत्व की सारी राजनीति ग़ुलामी के भाव और लोगों में भरी गई हीनभावना पर ही टिकी है। विपक्ष को अगर राजनीति में वापसी करनी है तो पहले इस भाव को लोगों के मन से निकालना होगा कि तुम हीन हो, तुच्छ हो या सदियों के ग़ुलाम हो। इसके बिना वापसी संभव नहीं है।