भारत अपनी आज़ादी के 75वें साल में इतिहास के सबसे मुश्किल दोराहे पर खड़ा है
सौमित्र रॉय
भारत अपनी आज़ादी के 75वें साल में इतिहास के सबसे मुश्किल दोराहे पर खड़ा है। यहां से एक रास्ता चीन और रूस की तरह एक तानाशाही, निरंकुश व्यवस्था की तरफ़ निकलता है, जहां लोकतंत्र की आड़ में संविधान के मौलिक अधिकारों को कुचलकर सत्ता स्थापित की जाएगी।
दूसरा रास्ता उस प्रगतिशीलता का है, जिसमें देश के सबसे कमजोर, गरीब के हाथ में सत्ता होगी और वही लोकतंत्र को संचालित करेगा। दूसरा रास्ता प्रगतिशीलता का है, लेकिन इतिहास गवाह है कि मुगल काल के कुछ समय को छोड़कर भारत कभी भी प्रगतिशीलता के रास्ते पर नहीं चला।
तब भी, जब आज़ाद भारत के पहले पीएम पंडित नेहरू ने भारत की प्रगति का ढांचा जापान मॉडल पर रखा और कृषि, छोटे–मझोले उद्योगों को भूल गए। नतीज़ा बेरोज़गारी का साया जो चिपका, अब कोढ़ बन चुका है। बहरहाल, मौजूदा सरकार और समाज इन गलतियों को भूल चुका है। राष्ट्रवाद के इस दौर में सरकार ने कहा है कि सच और झूठ का फैसला हम करेंगे।
अगर सरकार ने कह दिया कि मुर्गे की 3 टांग है तो है। दुनिया का कोई ज्ञान–विज्ञान उसे गलत साबित नहीं कर सकता। एक बार आपका सच, सरकारी झूठ बन गया तो आप या तो अपने शब्द वापस लें या जेल जाएं। सरकार जानती है कि उसका ही सच देश की गुलाम जनता मानेगी, क्योंकि देश में झूठ को सच बनाने का ठेका चंद अमीरों की फौज करती है।
बीजेपी 2023 को झूठ के साल के रूप में मनाकर सत्ता छीनना चाहती है। भारत की इकोनॉमी तीसरी, पांचवीं या जीडीपी के फर्जी आंकड़े, मंदी का भारत पर असर नहीं, जी20 के मुखिया मोदी, विदेशों से भयंकर निवेश, दुनिया में विश्वगुरु और मोदी का डंका...वगैरह।
गुजराती इसके आदी होंगे। 28 साल से ऐसी ही जहालत और बौद्धिक गुलामी झेल रहे हैं और अब यह भारत का गुजरात मॉडल है। इस ऊपरी चमक–दमक के पीछे का सच ठीक एक साल पहले जनवरी में मवाद के रूप में रेलवे की नौकरी के आवेदकों के उपद्रव के रूप में सामने आया था। बेरोजगारी अब और भयावह है।
भारत और चीन ने तकरीबन एक साथ प्रगति के रास्ते पर बढ़ना शुरू किया था। वर्ल्ड बैंक की 1983 की रिपोर्ट में साफ़ कहा गया है कि उसने मानव विकास को आधार बनाकर बढ़ना शुरू किया। शिक्षा, पोषण और जीवन पर्यंतता के मामले में आज वह हमसे मीलों आगे है। कम्युनिस्टों से नफरत करने वाले पाखंडी यह क्यों भूल जाते हैं कि माओ जेडोंग महिलाओं को आधा आसमान देना चाहते थे, दिया भी।
हमने औरतों के लिए खुली छोटी सी खिड़की भी बंद की। चीन छोड़िए। वियतनाम, कंबोडिया और पड़ोस में बांग्लादेश को ही देख लीजिए। वे हमसे पीछे चले और आगे निकल गए। देश का बिका हुआ मीडिया चेन्नई में एप्पल के निवेश पर छाती पीटता है, लेकिन यह नहीं बताता कि चीन से निकलकर अमेरिका का पैसा मैक्सिको जा रहा है और हम यहां–वहां मूत रहे हैं।
350 साल पहले शुरू हुई औद्योगिक क्रांति में जिन देशों को कामयाबी मिली, उन्होंने बेहतर शिक्षा और महिलाओं की भागीदारी को मुकम्मल किया। हम साक्षर बनाते रहे, जो अब मूर्ख, लफंगे, बेरोजगार और गालीबाज बन चुके हैं। मोदी का डिजिटल लोगों को सिखा नहीं पा रहा। जोशीमठ को धंसने से नहीं बचा पा रहा। छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य को लुटने से नहीं बचा रहा। सिर्फ यूपीआई कर रहा है।
मोदी ने 100 स्मार्ट शहर का जुमला फेंका था। स्मार्ट तो छोड़िए, बेरोजगारी और बेकसी का सबब बन चुके ये शहर रोजगार नहीं दे पा रहे हैं। दरअसल, इन सब झूठी हकीकतों से परे इस देश के दौलतमंद लोग जीडीपी और जी20 जैसी फिजूल बातों में चरमसुख तलाशते हैं। सोशल मीडिया में यह दिख रहा है।
कांग्रेस से भयंकर गलतियां हुईं। कृषि में नेहरू की उदासीनता को शास्त्री ने 1968 में हरित क्रांति लाकर सुधारा। बाद में मनरेगा, आरटीई, भोजन का हक भी आया। नरेंद्र मोदी ने क्या सुधारा? आज भी वे अकडकर 2047 की बात करते हैं, जबकि तीन चौथाई देश ही बिक चुका है।
इन गंभीर सवालों के साथ दोराहे पर खड़ा देश पठान, कब्रिस्तान, मुसलमान पर बहस और अब मौलिक हक छीनने में जुटा है। मेरे इस पोस्ट और नीचे दिए सारे प्रमाणों को सरकार झूठ ठहरा सकती है। लेकिन मेरे लिए ये राष्ट्रहित के प्रश्न हैं। बाखुशी जेल जाऊंगा।